लोगों की राय

कहानी संग्रह >> अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ

प्रकाश माहेश्वरी

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6296
आईएसबीएन :81-7063-328-1

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

335 पाठक हैं

‘अंत का आरंभ तथा अन्य कहानियाँ’ समाज के इर्द-गिर्द घूमती कहानियों का संग्रह है।

आव नहीं? आदर नहीं...


सारा सामान आँगन में आ गया था। बप्पा (पिताजी) के इशारा करने पर रंजन भागता हुआ गया और गली के नुक्कड़ पर तिवारीजी के एस.टी.डी. बूथ से ट्रेन का पूछकर आया।

ट्रेन डेढ़ घंटा लेट थी। यानी चार बजे आएगी।

चलने को तैयार खड़े दादाजी-दादीजी को सहारा देकर बप्पा ने वहीं बिछी खाट पर बैठाया और स्वयं खंभे के सहारे सिर झुकाकर बैठ गए।

रंजन दूसरे कोने में गुफ्तगू कर रहे रेवती-टिंकू के पास आया।

रंजन के बैठते ही रेवती ने कुढ़कर कहा, ''ट्रेन को भी आज ही लेट होना था।''

''होगा री।...अब जा तो रहे ही हैं। डेढ़-दो घंटा और सही।''

''अच्छा है बाबा, पिंड छूटा। अब चार-छह माह क्या आएँगे?''

''मगर माँ तो बोल रही थी...'' बीच में दखल दे टिंकू रहस्यमय ढंग से फुसफुसाया, ''...दादाजी-दादीजी अब वहीं रहेंगे, ताऊजी के पास।''

रेवती को सहसा विश्वास नहीं हुआ। अविश्वास से उसे देखती रही।

''कसम से। मैं खिड़की की ओट खड़ा था...'' उसने गले पर हाथ रखा, ''अभी सुबह ही बप्पा से बोल रही थीं...''

...बप्पा कमरे में अपना बैग जमा रहे थे। माँ कपड़े तह कर उन्हें देती जा रही थीं। बैग जमाते हुए बप्पा ने माँ से कहा, ''...अब देखो, भाभीजी कितने दिन रखती हैं इन्हें?''

''कितने-वितने दिन नहीं...'' माँ एकदम उखड़ गईं, ''...उनसे स्पष्ट कह देना-आखिर वे भी बेटा-बहू हैं। उन्हें भी सेवा करनी चाहिए इनकी।''

''मेरी बात सुनो, पारो...''

''मैं कुछ नहीं सुनना चाहती। कब तक हम ही हम सारा खर्च वहन करेंगे? क्या उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? भगवान का दिया सब कुछ तो है उनके पास? फिर सँभालते क्यों नहीं माता-पिता को?''

''तुम्हारा कहना सही है, पारो...'' लाचारी से बप्पा ने निरीह नज़रों से माँ को देखा, ''...भाभीजी इस बात को समझती ही नहीं...''

''फिर मैं कैसे समझ जाती हूँ?'' तमककर माँ ने बात काटी।

बप्पा ने अवशता से नैन झुका लिए।

माँ भन्नाकर कमरे से बाहर निकल गईं।

रंजन-रेवती के मुख खुले के खुले रह गए यह सुनकर। कुछ क्षणों तक बर्फ़-सा ठंडा मौन उनके दरम्यान छा गया। रेवती को लेशमात्र भी विश्वास नहीं था, ताईजी डेढ़-दो माह से अधिक दोनों को रखेंगी। पिछली बार भी जब वे गए थे, शायद छह या सात वर्ष पूर्व..., दो ही माह में वापस लौटवा दिया था। अब जब मालूम पड़ेगा-हमेशा के वास्ते आए हैं...?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. पापा, आओ !
  2. आव नहीं? आदर नहीं...
  3. गुरु-दक्षिणा
  4. लतखोरीलाल की गफलत
  5. कर्मयोगी
  6. कालिख
  7. मैं पात-पात...
  8. मेरी परमानेंट नायिका
  9. प्रतिहिंसा
  10. अनोखा अंदाज़
  11. अंत का आरंभ
  12. लतखोरीलाल की उधारी

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai